श्री सत्यनारायण कथा प्रथम अध्याय – Satyanarayan Katha Adhyay 1
एक समय नैमिषारण्य तीर्थ मे शोनकादि अट्ठासी हजार ऋषियों ने श्रीसूत जी से पूछा- “हे प्रभु ! इस कलियुग मे वेद-विद्या रहित मनुष्यो को प्रभु भक्ति किस प्रकार मिलेगी तथा उनका उद्धार कैसे होगा ? हे मुनि श्रेष्ठ ! कोई ऐसा तप कहिए जिस मे थोड़े समय मे पुण्य प्राप्त हो तथा मनवांछित फल भी मिले, वह कथा सुनने को हमारी प्रबल इच्छा है।” सर्वशास्त्र ज्ञाता श्रीसूत जी बोले- “हे वैष्णवों में पूज्य ! आप सब ने प्राणियो के हित की बात पूछी है। अब मै उस श्रेष्ठ व्रत को आप लोगो से कहूंगा जिस व्रत को नारद जी ने श्री लक्ष्मीनारायण भगवान् से पूछा था और श्री लक्ष्मीपति ने मुनि श्रेष्ठ नारद जी से कहा था। यह कथा ध्यान से सुनो !
एक समय, योगीराज नारद जी दुसरो के हित की इच्छा से, अनेक लोकों मे घूमते हुए मृत्युलोक में आ पहुंचे। वहाँ बहुत योनियो मे जनमे हुए मनुष्यो को अपने कर्मो के द्वारा अनेक दुःखो से पीड़ित देखकर, किस यत्न को करने से निश्चय ही इनके दुःखो का अन्त हो सकेगा, ऐसा मन मे सोच कर इन्द्र लोक को गए । वहाँ श्वेत वर्ण : और चार भुजाओ वाले देवो के ईश: नारायण को (जिनके हाथो में शंख, चक्र, गदा और पदम् थे तथा वरमाला पहने हुए थे) देखकर स्तुति करने लगे। “हे भगवान् ! आप अत्यन्त शक्ति से सम्पन्न है। मन तथा वाणी भी आपको नही पा सकती। आपका आदि मध्य अन्त नही है । निर्गण स्वरूप सृष्टि के कारण भक्तो के दुःखो को नष्ट करने वाले हो । आपको मेरा नमस्कार है।
हे मुनि ! श्रेष्ठ आपके मन में क्या है ? आपका किस काम के लिए आगमन हआ है? निःसंकोच कहो तब नारद मनि बोले- “मृत्युलोक मे सब मनुष्य जो अनेक योनियो मे पैदा हुए है, अपने-अपने कर्मों के द्वारा अनेक दु:खो से दुखी हो रहे है। हे नाथ मुझ पर दया रखते हो तो बताइये कि उन मनुष्यो के सब दुःख थोड़े से ही प्रयत्न से कैसे दूर हो सकते है ।” श्री भगवान् जी बोले-हे नारद ! मनुष्यों की भलाई के लिए तुमने बहुत अच्छी बात पूछी है। जिस काम के करने से मनुष्य मोह से हट जाता है वह मै कहता हूं। सुनो- बहुत पुण्य देने वाला स्वर्ग तथा मृत्युलोक दोनो मे दुर्लभ यह उत्तम व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक सम्पन्न करके मनुष्य मोह से छूट जाता है वह मै कहता हूं । सुनो-बहुत पुण्य देने वाला वग तथा मृत्युलोक दोनो में दुर्लभ यह उत्तम व्रत है । आज मैं प्रेमवश होकर तुमसे कहता हूँ
श्री सत्यनारायण भगवान् का यह व्रत अच्छी तरह विधानपूर्वक सम्पन्न करके मनुष्य तुरन्त ही यहाँ सुख भोगकर मरने पर मोक्ष को प्राप्त होता है।” श्री भगवान् के वचन सुनकर नारद मुनि बोले कि उस व्रत का फल क्या है? क्या विधान है ? किसने यह व्रत किया है और किस दिन यह व्रत करना चाहिए ? हे भगवान् मुझसे विस्तार से कहो । भगवान् बोले-दुःख शोक आदि को दूर करने वाला, यह व्रत सब स्थानो पर विजयी करने वाला है। भक्ति और श्रद्धा के साथ किसी भी दिन मनुष्य श्री सत्यनारायण की शाम के समय ब्राह्मणो और बन्धुओ के साथ धर्म परायण होकर पूजा करें। भक्तिभाव से नैवेद्य, केले का फल, घी, दूध और गेंहू का चूर्ण सवाया लेवे । गेहूं के अभाव में साठी का चूर्ण, शक्कर अथवा गुड़ लें तथा भक्ति-भाव से भगवान् का स्मरण करता हुआ समय व्यतीत करे । इस तरह इसे करने पर मनुष्यो की इच्छा निश्चय पूरी होती है। विशेष खर कलि-काल में मृत्युलोक पर यही मोक्ष का सरल उपाय है।
॥ प्रथम अध्याय सम्पूर्ण ।।
श्री सत्यनारायण कथा दूसरा आध्याय – Satyanarayan Katha Adhyay 2
सूतजी बोले- हे ऋषियों ! जिसने पहले समय मे इस व्रत को किया है उसका इतिहास कहता हूं ध्यान से सुनो । सुन्दर काशी पुरी नगरी मे एक अत्यन्त निर्धन ब्राह्मण रहता था । वह भूख और प्यास से बेचैन हुआ पृथ्वी पर घुमता था । ब्राह्मणो से प्रेम करने वाले श्री भगवान् ने ब्राह्मण को दुःखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास जा कर आदर के साथ पूछा-हे विप्र! तुम नित्य ही दु:खी होकर पृथ्वी पर क्यो घुमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण यह सब मुझसे कहो, मै सुनना चाहता हूं। ब्राह्मण बोला- मै निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिये पृथ्वी पर फिरता हैं ।
हे भगवान ! यदि आप इससे छुटकारे का उपाय जानते हो तो कृपा कर कहो। वृद्ध ब्राह्मण बोला कि श्री सत्यनारायण भगवान् मनवांछित फल देने वाले है । इसलिए है ब्राह्मण तू उनका पूजन कर जिसके करने से मनुष्य सब दुःखो से मुक्त होता है । ब्राह्मण को व्रत का सारा विधान बतला कर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले श्री सत्यनारायण भगवान अन्तर्धान हो गए। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, मै उसको करूंगा, यह निश्चय करने पर उस वृद्ध ब्राह्मण को रात मे नींद नही आई। वह सवेरे उठ कर श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिये चल दिया। उस दिन उसको भिक्षा मे बहुत धन मिला जिससे बन्धु-बांधवों के साथ उसने श्री सत्यनारायण का व्रत किया। इसके करने से विप्र सब दुखो से छुटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियो से युक्त हुआ। उस समय से वह विप्र हर मास व्रत करने लगा। इस तरह सत्यनारायण भगवान् के व्रत को जो करेगा। वह सब पापों से छूट जाता है
क्या कहूँ ? ऋषि बोले- हे मुनीश्वर ! संसार मे इस विप्र से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया हम सब सुनना चाहते है। इसके लिए हमारे मन में श्रद्धा है । सूतजी बोले- हे मुनियों ! जिस-जिस ने इस व्रत को किया वो सब सुनो। एक समय यह वृद्ध ब्राह्मण धन और एश्वर्य के अनुसार बन्धु- बान्धवो के साथ व्रत करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकड़ी बेचने वाला बूढ़ा आदमी आया और बाहर लकड़ियो को रखकर विप्र के मकान मे गया। प्यास से दु:खी होकर लकड़हारा उनको व्रत करते देखकर विप्र को नमस्कार कर कहने लगा कि आप यह किसका पूजन कर रहे है और इस व्रत को करने से क्या फल मिलता है ? कृपा करके मुझसे कहो। ब्राह्मण ने कहा- सब मनोकामनाओं को पूरा करने वाला यह श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत है, इनकी ही कृपा से मेरे यहां धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है, विप्र से इस बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ। भगवान् का चरणामृत ले और भोजन करने के बाद अपने घर को गया।
लकड़हारे ने अपने मन मे इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम मे लकड़ी बेचने से जो धन मिलेगा उसी से सत्यनारायण देव का उत्तम व्रत करूंगा। यह मन मे विचार कर वह बूढ़ा आदमी लकड़ियां अपने सिर पर रखकर जिस नगर में धनवान लोग रहते थे, वह ऐसे सुन्दर नगर में गया। उस रोज वहां पर उसे उन लकड़ियों का दाम पहले दिनों से चौगना मिला और प्रसन्न होकर पके केले की फली, शक्कर, घी, दुग्ध, दही और गेंहू का चूरन इत्यादि श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत की कुल सामग्रियों को लेकर अपने घर गया। फिर उसने अपने भाइयों को बुलाकर विधि के साथ भगवान्जी का पूजन और व्रत किया। उस व्रत के प्रभाव से वह बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुख भोग कर बैकुण्ठ को चला गया।
॥ दुसरा अध्याय सम्पूर्ण ॥
श्री सत्यनारायण कथा तृतीय आध्याय – Satyanarayan Katha Adhyay 3
श्री सूतजी बोले, हे ऋषि-मुनियो! अब मैं आपको आगे की कथा सुनाता हूं प्राचीन समय में कनकपुर में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान् तथा सत्यवादी राजा राज करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा करता था और निर्धनों को खूब अन, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते थे। श्री सत्यनारायण की अनुकम्पा से उनके महल में धन-सम्पत्ति के भण्डार भरे थे। उनकी सारी प्रजा बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रही थी। एक बार राजा और रानी बहुत से लोगों के साथ जब भद्रशीला नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे, तो नदी के किनारे एक बड़ी नौका आकर ठहरी। उस नाव में एक धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत-सा धन कमाकर अपने नगर को लौट रहा था। उसका सारा धन उस नाव में रखा हुआ था।
नाव से उतरकर व्यापारी राजा के समीप पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने कहा, ‘हे राजन्! आप इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं? इस पूजा के करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है?’ राजा ने व्यापारी से कहा, ‘हम हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते हैं और फिर पूजा-अर्चना के बाद भगवान् का प्रसाद लोगों को बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। सत्यनारायण भगवान की पूजा से। निस्सन्तान को सन्तान प्राप्त होती है। दुखियों के दु:ख दूर होते हैं।
राजा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, ‘हे राजन्! मैं भी सत्यनारायण भगवान् का व्रत करना चाहता हूं। कृपया मुझे इस व्रत को करने की विधि बतलाएं।’राजा ने व्यापारी को सत्यनारायण व्रत की पूरी विधि बताई। राजा ने व्रतकथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया। श्री सत्यनारायण भगवान् का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और वापस लौटकर अपनी पत्नी लीलावती से कहा, ‘हमारी कोई सन्तान नहीं है। कनकपुर के राजा उल्कामुख ने मुझे बताया है कि श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने और उनकी कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यदि सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से हमारे कोई सन्तान हुई तो मैं श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत अवश्य करूंगा।’ व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई। दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री जन्म पर बहुत खुशियां मनाई, लेकिन सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी क्या जल्दी है। मैं इधर व्यापार में बहुत व्यस्त हूं। मुझे अभी फुर्सत नहीं है। जब अपनी बेटी बड़ी हो जाएगी और इसका विवाह करूंगा तो मैं अवश्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा। अपने पति के वचन सुनकर लीलावती चुप रह गई। व्यापारी की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चंदमा की । तरह तेजी से बड़ी होने लगी। पलक झपकते ही 16 वर्ष बीत गए। एक दिन व्यापार में बहुत-सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों के साथ उपवन में। घूमते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए। सुयोग्य वर ढूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर-दूर के नगरों में भेजा। व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक-पुत्र को देखा। वणिक का बेटा अत्यंत सुन्दर और गुणवान् था।
सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक के बेटे के बारे में बताया। व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन हुआ और कलावती का विवाह बहुत धूमधाम से उसके साथ कर दिया। दहेज में उसने वणिक-पुत्र को बहुत-सा धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने श्री सत्यनारायण का व्रत नहीं किया। लीलावती ने अपने पति से कहा, ‘नाथ! आपने कलावती के विवाह पर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर लेना चाहिए।’ पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए जा रहा हूँ व्यापार से लौटने पर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत-पूजा अवश्य करूंगा।’ यह कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए निकल पड़ा। उस व्यापारी द्वारा बार-बार व्रत का निश्चय करने और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण भगवान् क्रोधित हो गए। और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया।
व्यापारी अपने दामाद के साथ रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे। सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का धन अवसर पाकर व्यापारी की नावों में छिपा दिया। खाली हाथ चोर आराम से भाग गए। चोरों का पीछा करते हुए सैनिक व्यापारी के पास पहुंचे। उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया गया धन मिल गया। तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा ने उन दोनों को बंदीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया। श्री सत्यनारायण के प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और चोर सारा धन चुराकर ले गए। घर में खाने के लिए भी अन नहीं बचा।
भूख-प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर व्रतकथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने अपनी मां लीलावती को सारी बात बताई। कलावती से ? श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा की बात सुनकर लीलावती ने भी व्रत करने का निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया था। लीलावती के विधिपूर्वक व्रत करने और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान् ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूरी की। उन्होंने राजा चंदकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘हे राजन्!
व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को मुक्त कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा सारा वैभव नष्ट कर दूंगा। इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान् अंतर्धान हो गए। प्रात: होते ही राजा चंदकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई तो सबने व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ देने के लिए कहा। राजा चंदकेतु ने तुरन्त उस व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ दिया। उनका सारा धन भी वापस कर दिया। इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से व्यापारी और उसका दामाद दोनों खुशी-खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।
॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥
श्री सत्यनारायण कथा चतुर्थ आध्याय – Satyanarayan Katha Adhyay 4
श्री सूतजी बोले, हे ऋषि-मुनियो! अब मैं आपको आगे की कथा सुनाता हूं प्राचीन समय में कनकपुर में उल्कामुख नामक एक बुद्धिमान् तथा सत्यवादी राजा राज करता था। वह प्रतिदिन मंदिर में जाकर श्री सत्यनारायण भगवान् की पूजा करता था और निर्धनों को खूब अन, वस्त्र और धन दान करता था। उसकी पत्नी सुभद्रा बहुत सुशील थी। वे दोनों हर महीने श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करते थे। श्री सत्यनारायण की अनुकम्पा से उनके महल में धन-सम्पत्ति के भण्डार भरे थे। उनकी सारी प्रजा बहुत आनंद से जीवन-यापन कर रही थी। एक बार राजा और रानी बहुत से लोगों के साथ जब भद्रशीला नदी के किनारे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे, तो नदी के किनारे एक बड़ी नौका आकर ठहरी। उस नाव में एक धनी व्यापारी यात्रा कर रहा था। वह बहुत-सा धन कमाकर अपने नगर को लौट रहा था। उसका सारा धन उस नाव में रखा हुआ था।
नाव से उतरकर व्यापारी राजा के समीप पहुंचा। राजा को पूजा करते देख उसने कहा, ‘हे राजन्! आप इन सब लोगों के साथ मिलकर किसकी पूजा कर रहे हैं? इस पूजा के करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है?’ राजा ने व्यापारी से कहा, ‘हम हर पूर्णिमा को सत्यनारायण भगवान् का व्रत करते हैं और फिर पूजा-अर्चना के बाद भगवान् का प्रसाद लोगों को बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण करते हैं। सत्यनारायण भगवान की पूजा से। निस्सन्तान को सन्तान प्राप्त होती है। दुखियों के दु:ख दूर होते हैं।
राजा की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, ‘हे राजन्! मैं भी सत्यनारायण भगवान् का व्रत करना चाहता हूं। कृपया मुझे इस व्रत को करने की विधि बतलाएं।’राजा ने व्यापारी को सत्यनारायण व्रत की पूरी विधि बताई। राजा ने व्रतकथा सुनने के बाद व्यापारी को भी प्रसाद दिया। श्री सत्यनारायण भगवान् का स्मरण करते हुए व्यापारी ने प्रसाद ग्रहण किया और वापस लौटकर अपनी पत्नी लीलावती से कहा, ‘हमारी कोई सन्तान नहीं है। कनकपुर के राजा उल्कामुख ने मुझे बताया है कि श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने और उनकी कथा सुनने से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। यदि सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से हमारे कोई सन्तान हुई तो मैं श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत अवश्य करूंगा।’ व्यापारी के ऐसा निश्चय करने के कुछ समय बाद लीलावती गर्भवती हुई। दसवें महीने में उसने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। व्यापारी ने पुत्री जन्म पर बहुत खुशियां मनाई, लेकिन सत्यनारायण भगवान का व्रत नहीं किया।
जब उसकी पत्नी लीलावती ने अपने पति से श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने के लिए कहा तो वह बोला, ‘अभी क्या जल्दी है। मैं इधर व्यापार में बहुत व्यस्त हूं। मुझे अभी फुर्सत नहीं है। जब अपनी बेटी बड़ी हो जाएगी और इसका विवाह करूंगा तो मैं अवश्य श्री सत्यनारायण भगवान का व्रत करूंगा। अपने पति के वचन सुनकर लीलावती चुप रह गई। व्यापारी की कन्या कलावती शुक्लपक्ष के चंदमा की । तरह तेजी से बड़ी होने लगी। पलक झपकते ही 16 वर्ष बीत गए। एक दिन व्यापार में बहुत-सा धन कमाकर घर लौटे व्यापारी ने अपनी बेटी को सहेलियों के साथ उपवन में। घूमते देखा तो उसे उसके विवाह की चिन्ता होने लगी। व्यापारी ने कलावती के लिए। सुयोग्य वर ढूंढ़ने के लिए अपने सेवकों को दूर-दूर के नगरों में भेजा। व्यापारी के सेवक कंचनपुर नगर में पहुंचे। उस नगर में उन्होंने एक वणिक-पुत्र को देखा। वणिक का बेटा अत्यंत सुन्दर और गुणवान् था।
सेवकों ने वापस लौटकर व्यापारी को उस वणिक के बेटे के बारे में बताया। व्यापारी उस सुंदर लड़के को देखकर बहुत प्रसन हुआ और कलावती का विवाह बहुत धूमधाम से उसके साथ कर दिया। दहेज में उसने वणिक-पुत्र को बहुत-सा धन दिया। कलावती का विवाह भी हो गया, लेकिन व्यापारी ने श्री सत्यनारायण का व्रत नहीं किया। लीलावती ने अपने पति से कहा, ‘नाथ! आपने कलावती के विवाह पर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत करने का निश्चय किया था। अब तो आपको व्रत कर लेना चाहिए।’ पत्नी की बात सुनकर व्यापारी ने कहा, अभी तो मैं अपने दामाद के साथ व्यापार के लिए जा रहा हूँ व्यापार से लौटने पर श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत-पूजा अवश्य करूंगा।’ यह कहकर व्यापारी ने कई नावों में सामान भरा और अपने दामाद तथा सेवकों के साथ व्यापार के लिए निकल पड़ा। उस व्यापारी द्वारा बार-बार व्रत का निश्चय करने और फिर व्रत न करने से सत्यनारायण भगवान् क्रोधित हो गए। और व्यापारी को दण्ड देने का निश्चय किया।
व्यापारी अपने दामाद के साथ रत्नसारपुर में पहुंचकर व्यापार करने लगा। एक दिन कुछ चोर महल में चोरी करके भाग रहे थे। सैनिक उनका पीछा कर रहे थे। भागते हुए चोरों ने सैनिकों से बचने के लिए चोरी का धन अवसर पाकर व्यापारी की नावों में छिपा दिया। खाली हाथ चोर आराम से भाग गए। चोरों का पीछा करते हुए सैनिक व्यापारी के पास पहुंचे। उन्होंने व्यापारी की नावों की तलाशी ली तो उन्हें राजा का चोरी किया गया धन मिल गया। तब सैनिक व्यापारी और उसके दामाद को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए। राजा ने उन दोनों को बंदीगृह में डाल दिया और उनका सारा धन ले लिया। श्री सत्यनारायण के प्रकोप से उधर लीलावती पर भी मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। उसके घर में चोरी हो गई और चोर सारा धन चुराकर ले गए। घर में खाने के लिए भी अन नहीं बचा।
भूख-प्यास से व्याकुल होकर व्यापारी की बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई। उस ब्राह्मण के घर में श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा हो रही थी। उसने भी वहां बैठकर व्रतकथा सुनी और प्रसाद लिया। घर लौटकर कलावती ने अपनी मां लीलावती को सारी बात बताई। कलावती से ? श्री सत्यनारायण भगवान् की व्रतकथा की बात सुनकर लीलावती ने भी व्रत करने का निश्चय किया। अगले दिन लीलावती ने अपने परिवार और आसपास के लोगों के साथ श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा की। पूजा के बाद सबको प्रसाद बांटकर स्वयं भी प्रसाद ग्रहण किया। लीलावती ने अपने पति और दामाद के घर लौट आने की मनोकामना से श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत किया था। लीलावती के विधिपूर्वक व्रत करने और प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान् ने प्रसन्न होकर उसकी मनोकामना पूरी की। उन्होंने राजा चंदकेतु को स्वप्न में दर्शन देकर कहा, ‘हे राजन्!
व्यापारी और उसका दामाद बिल्कुल निर्दोष हैं। सुबह उठते ही दोनों को मुक्त कर दो। उन दोनों का सारा धन भी वापस लौटा दो। यदि तुमने ऐसा नहीं किया तो मैं तुम्हारा सारा वैभव नष्ट कर दूंगा। इतना कहकर श्री सत्यनारायण भगवान् अंतर्धान हो गए। प्रात: होते ही राजा चंदकेतु ने अपने मंत्रियों और राजज्योतिषी को रात के स्वप्न की बात बताई तो सबने व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ देने के लिए कहा। राजा चंदकेतु ने तुरन्त उस व्यापारी और उसके दामाद को छोड़ दिया। उनका सारा धन भी वापस कर दिया। इस प्रकार श्री सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से व्यापारी और उसका दामाद दोनों खुशी-खुशी अपने नगर की ओर चल दिए।
॥ तृतीय अध्याय समाप्त ॥
श्री सत्यनारायण कथा पंचम आध्याय – Satyanarayan Katha Adhyay 5
श्री सूतजी बोले, ‘हे ऋषि-मुनियो! मैं और भी कथा सुनाता हूं। कौशलपुर में एक राजा था-तुंगध्वज उसकी प्रजा उसकी छत्रछाया में आनंदपर्वक रह रही थी। राजा तुंगध्वज अपनी प्रजा के सुख-दुःख का बहुत ध्यान रखता था। लेकिन एक बार उसने भी सत्यनारायण भगवान् का प्रसाद ग्रहण नहीं किया। तब सभी को चिन्ताओं से मुक्त करके, धन-सम्पत्ति से भण्डार भरकर प्राणियों को जीवन के सभी सुख देनेवाले श्री सत्यनारायण भगवान् ने राजा को प्रसाद ग्रहण न करने का दण्ड दिया।
एक दिन राजा तुंगध्वज जंगल में हिंसक पशुओं का शिकार करने निकला था। तेजी से घोड़ा दौड़ाकर शिकार का पीछा करते हुए वह अपने सैनिकों से अलग हो गया। और देर तक हिंसक जानवरों का शिकार किया। अत: कुछ देर विश्राम करने की इच्छा से वह एक बड़े वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गया। समीप ही कुछ चरवाहे श्री सत्यनारायण भगवान की पूजा कर रहे थे। राजा ने उनके पास से गुजरते हुए सत्यनारायण भगवान्को नमस्कार नहीं किया। चरवाहों ने राजा को पूजा के बाद प्रसाद दिया. तो राजा ने उन्हें छोटे लोग समझकर प्रसाद ग्रहण नहीं किया और घोडे पर सवार हो अपने नगर की ओर चल दिया। राजा जब नगर में पहुंचा तो देखा कि उसका सारा वैभव तथा धन-सम्पत्ति आदि नष्ट हो गया है। श्री सत्यनारायण के प्रकोप से राजा निर्धन हो गया। तब राजज्योतिषी ने राजा से कहा, महाराज! आपसे अवश्य ही कोई भूल हुई है।
अगर आप उस भूल का प्रायश्चित्त कर लें तो सबकुछ पहले जैसा हो जाएगा।” राजा को तुरन्त अपनी भूल का स्मरण हो आया। अतः मंदिर में जाकर राजा ने श्री सत्यनारायण भगवान से क्षमा मांगी और उनकी पूजा की। पूजा के बाद प्रसाद ग्रहण करने से श्री सत्यनारायण भगवान् की अनुकम्पा से चमत्कार हुआ। राजा का खोया वैभव पुनः लौट आया। श्री सत्यनारायण भगवान की अनुकम्पा से जीवन के सभी सुखों का भोग करते हुए अंत में राजा तुंगध्वज वैकुण्ठ धाम को गया और मोक्ष को प्राप्त किया। श्री सत्यनारायण भगवान के व्रत-पूजा को जो भी मनुष्य करता है, उसके सभी दुःख, चिन्ताएं नष्ट होती हैं। उसके घर में धन-धान्य के भण्डार भरे रहते हैं। निस्संतानों को सन्तान की प्राप्ति होती है और सभी मनोकामनाओं को प्राप्त कर मनुष्य अंत में मोक्ष को प्राप्त कर सीधे वैकुण्ठ धाम को जाता है।
श्री सूतजी ने कुछ पल रुककर कहा, ‘हे श्रेष्ठ मुनियो! श्री सत्यनारायण भगवान् के व्रत को पूर्व जन्म में जिन लोगों ने किया उन्हें दूसरे जन्म में भी सभी तरह के सुख प्राप्त हुए। वृद्ध शतानंद ब्राह्मण ने पूर्वजन्म में सत्यनारायण का विधिवत् व्रत किया, तो दूसरे जन्म में सुदामा के रूप में भगवान् की पूजा करते हुए अंत में मोक्ष को प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम को चला गया। उल्कामुख राजा अगले जन्म में राजा दशरथ के रूप में मोक्ष को प्राप्त करके वैकुण्ठ को गए। व्यापारी ने मोरध्वज के रूप में जन्म लिया और अपने पुत्र को आरे से चीरकर भगवान की अनुकम्पा से बैकुण्ठ को प्राप्त किया। राजा तुंगध्वज अगले जन्म में मनु के रूप में जन्म लेकर भगवान् का पूजा-पाठ करते हुए, लोकप्रिय । होकर सद्कर्म करते हुए मोक्ष को प्राप्त कर वैकुण्ठ धाम को चले गए। हे ऋषि-मुनियो! श्री सत्यनारायण भगवान् का व्रत और पूजा मनुष्य को सभी चिन्ताओं से मुक्त करके, धन-सम्पत्ति के भण्डार भरकर अंत में जन्म-जन्मान्तर के चक्रव्यूह से मुक्ति दिलाकर मोक्ष प्रदान करता है।
॥ पंचम अध्याय समाप्त ॥
श्री सत्यनारायण भगवान की आरती – Satyanarayan Aarti
जय लक्ष्मी रमणा, जय श्रीलक्ष्मी रमणा ।
सत्यनारायण स्वामी जन- पातक- हरणा ।।
रत्नजटित सिंहासन अदभुत छबि राजै ।
नारद करत निराजन घंटा-ध्वनि बाजै ।।
प्रकट भये कलि-कारण, द्विजको दरस दियो ।
बूढ़े ब्राह्मण बनकर कंचन-महल कियो ।।
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी ।
चन्द्रचूड़ एक राजा, जिनकी बिपति हरी ।।
वैश्य मनोरथ पायो, श्रद्धा तज दीन्हीँ ।
सो फल फल भोग्यो प्रभुजी फिर अस्तुति कीन्हीं ।।
भाव-भक्ति के कारण छिन-छिन रुप धरयो ।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो ।।
ग्वाल-बाल सँग राजा वन में भक्ति करी ।
मनवाँछित फल दीन्हों दीनदयालु हरी ।।
चढ़त प्रसाद सवायो कदलीफल, मेवा ।
धूप – दीप – तुलसी से राजी सत्यदेवा ।।
सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै ।
तन मन सुख संपत्ति मन वांछित फल पावै ।।